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प्र विष्ण॑वे शू॒षमे॑तु॒ मन्म॑ गिरि॒क्षित॑ उरुगा॒याय॒ वृष्णे॑। य इ॒दं दी॒र्घं प्रय॑तं स॒धस्थ॒मेको॑ विम॒मे त्रि॒भिरित्प॒देभि॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra viṣṇave śūṣam etu manma girikṣita urugāyāya vṛṣṇe | ya idaṁ dīrgham prayataṁ sadhastham eko vimame tribhir it padebhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। विष्ण॑वे। शू॒षम्। ए॒तु॒। मन्म॑। गि॒रि॒ऽक्षिते॑। उ॒रु॒ऽगा॒याय॑। वृष्णे॑। यः। इ॒दम्। दी॒र्घम्। प्रऽय॑तम्। स॒धऽस्थ॑म्। एकः॑। वि॒ऽम॒मे। त्रि॒ऽभिः। इत्। प॒देऽभिः॑ ॥ १.१५४.३

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:154» मन्त्र:3 | अष्टक:2» अध्याय:2» वर्ग:24» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:21» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यः) जो (एकः) एक (इत्) ही परमात्मा (त्रिभिः) तीन अर्थात् स्थूल, सूक्ष्म, अति सूक्ष्म (पदेभिः) जानने योग्य अंशों से (इदम्) इस (दीर्घम्) बढ़े हुए (प्रयतम्) उत्तम यत्नसाध्य (सधस्थम्) सिद्धान्तावयवों से एक साथ के स्थान को (प्रविममे) विशेषता से रचता है उस (वृष्णे) अनन्त पराक्रमी (गिरिक्षिते) मेघ वा पर्वतों को अपने अपने में स्थिर रखनेवाले (उरुगायाय) बहुत प्राणियों से वा बहुत प्रकारों से प्रशंसित (विष्णवे) व्यापक परमात्मा के लिये (मन्म) विज्ञान (शूषम्) और बल (एतु) प्राप्त होवे ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - कोई भी अनन्त पराक्रमी जगदीश्वर के विना इस विचित्र जगत् के रचने, धारण करने और प्रलय करने को समर्थ नहीं हो सकता, इससे इसको छोड़ और की उपासना किसी को न करनी चाहिये ॥ ३ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे मनुष्या य एक इत् त्रिभिः पदेभिरिदं दीर्घं प्रयतं सधस्थं प्रविममे तस्मै वृष्णे गिरिक्षित उरुगायाय विष्णवे मन्म शूषमेतु ॥ ३ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (विष्णवे) व्यापकाय (शूषम्) बलम् (एतु) प्राप्नोतु (मन्म) विज्ञानम् (गिरिक्षिते) गिरयो मेघा शैला वा क्षिता व्युष्टा यस्मिँस्तस्मै (उरुगायाय) बहुभिः प्रशंसिताय (वृष्णे) अनन्तवीर्याय (यः) (इदम्) (दीर्घम्) बृहत् (प्रयतम्) प्रयत्नसाध्यम् (सधस्थम्) तत्त्वावयवैः सह स्थानम् (एकः) असहायोऽद्वितीयः (विममे) विशेषेण रचयति (त्रिभिः) स्थूलसूक्ष्मातिसूक्ष्मैरवयवैः (इत्) एव (पदेभिः) ज्ञातुमर्हैः ॥ ३ ॥
भावार्थभाषाः - न खलु कश्चिदप्यनन्तबलं जगदीश्वरमन्तरेदं विचित्रं जगत्स्रष्टुं धर्त्तुं प्रलाययितुं च शक्नोति तस्मादेतं विहायान्यस्योपासनं केनचिदपि नैव कार्य्यम् ॥ ३ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - अनन्त पराक्रमी जगदीश्वराशिवाय कुणीही या विचित्र जगाची रचना, धारणा व प्रलय करण्यास समर्थ बनू शकत नाही, त्यामुळे त्याला सोडून इतराची उपासना कुणीही करू नये. ॥ ३ ॥